अपने बचपन से लेकर ताउम्र फैक्ट्रियों की अँधेरी कोठरियों में घुट-घुट के रहने वाले लोगों की जीवन स्थिति का मर्मिक चित्रण
By Raj Berwal Social Activist, New Delhi वैसे तो मौजूदा दौर में बेरोज़गारी के चलते पढ़े-लिखे नौजवानों के भी हालात बहुत ख़राब हैं। लेकिन जो युवा मज़दूर गरीब परिवारों से सम्बंध रखते हैं, उनको तो अपनी युवा अवस्था में स्कूल की बजाय ज़्यादातर फैक्ट्रियों का ही मुँह देखना पड़ता है। और अपने बचपन से लेकर ताउम्र फैक्ट्रियों की अँधेरी कोठरियों में घुट-घुट के ज़िन्दा रहना पड़ता है। भला ऐसी दर्दनाक ज़िंदगी का क़िस्सा ये युवा किसको सुनाए, किसके सामने अपने दुःख-दर्द बयान करे। वैसे तो आज के इस बेरहम समाज में जब कोई किसी की सुनने को तैयार नहीं है उसमें भला इन जैसों की दास्तान कौन सुने। कुछ दिनों पहले दिल्ली के शाहबाद डेयरी इलाक़े में अभियान के दौरान एक नौजवान से बात हुई। जिसकी उम्र लगभग 17 या 18 साल होगी। वैसे तो उसके चेहरे की उदासी ही बहुत कुछ बता रही थी लेकिन बाद में उसकी बातों में एक उम्मीद नज़र आई जो समाज बदलने ही चाहत रखने वाले में ही नहीं बल्कि हर उस मज़दूर में नज़र आनी चाहिए जिसको फैक्ट्रियों में काम करते-करते न दिन और न रात का पता चलता हो। उसने बताया कि वह फ़िलहाल तो बेलदारी का काम करता ह...