क्‍या सारे किसानों के हित और मांगें एक हैं?



By Abhinav Sinha
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किसान कौन है? यह सबसे पहला बुनियादी सवाल है।
जब हमारे देश में सामन्ती जागीरदारी की व्यवस्था हावी थी, तब हर प्रकार और हर आकार के किसान का एक साझा दुश्मन था। खेतिहर मज़दूरों व बंधुआ मज़दूरों का भी वही साझा दुश्मन था। यह दुश्मन था सामन्ती ज़मीन्दार। सामन्ती ज़मीन्दार कौन होता है? सामन्ती ज़मीन्दार वह ज़मीन्दार होता है, जो कि आम किसान आबादी से लगान वसूल करता है, गांव में उसके पास सरकार जैसी शक्ति होती है, वह सिर्फ आर्थिक तौर पर नहीं लूटता, बल्कि उसकी आर्थिक लूट टिकी ही उसके राजनीतिक दबदबे और चौधराहट, यानी आर्थिकेतर उत्पीड़न पर होती है। वह अपनी ऐय्याशी और ऐशो-आराम के मुताबिक कितना भी लगान वसूलता था। वह अपनी ज़मीन पर बाज़ार के लिए और मुनाफे के लिए खेती नहीं करवाता था, बल्कि वह पूरी तरह से किसानों से वसूले जाने वाले लगान पर निर्भर करता था।
यह सामन्ती ज़मीन्दार धनी किसान, मंझोले किसान, ग़रीब किसान व काश्तकार, और खेतिहर मज़दूर सबको लूटता और दबाता था और इन सभी का साझा दुश्मन था।
हमारे देश में जब राजनीतिक आज़ादी आई और एक पूंजीवादी सत्ता अस्तित्व में आई, तो कहने के लिए ज़मीन्दारी उन्मूलन कानून बना। लेकिन इसे कुछ बेहतर तरीके से जम्मू-कश्मीर और केरल में ही लागू किया गया; बाकी राज्यों में इसे बहुत ही गये-बीते तरीके से लागू किया गया और कुछ राज्यों में तो नाममात्र ही लागू किया गया। लेकिन खेती को पूंजीवादी रूप में ढालना भारत के नये हुक्मरानों, यानी नये औद्योगिक पूंजीपति वर्ग के लिए ज़रूरी था। नतीजतन, उनकी नुमाइन्दगी करने वाली नयी सरकार ने इन सामन्ती ज़मीन्दारों को ही पूंजीवादी ज़मीन्दार में तब्दील होने का मौका दिया। पूंजीवादी ज़मीन्दार कौन होता है?
पूंजीवादी ज़मीन्दार वह होता है, जो पूंजीवादी लगान वसूलता है। पूंजीवादी लगान क्या होता है? इस लगान को पूंजीवादी ज़मीन्दार अपने मन-मुआफिक नहीं तय कर सकता है। फिर यह लगान किस प्रकार तय होता है? पूंजीवादी लगान तीन कारकों से तय होता है: पूरी अर्थव्यवस्था में मुनाफ़े की औसत दर, अलग-अलग ज़मीन के प्लाटों की उत्पादकता और मुनाफे की दर और खेती का एक ऐसे संसाधन पर निर्भर करना, जो कि कुदरती संसाधन है और सीमित है: यानी ज़मीन। ज़मीन किसी ने बनाई नहीं है। यह कुदरती संसाधन है। लेकिन यह सीमित मात्रा में है और यह पूंजीवादी ज़मीन्दारों के एक वर्ग की सम्पत्ति है। जैसे-जैसे भोजन व अन्य खेती उत्पादों की मांग बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे कम उपजाऊ ज़मीन पर खेती ज़रूरी बनती जाती है। इन खेती उत्पादों की मांग यह तय करती है कि सबसे ख़राब ज़मीन पर खेती करने वाले पूंजीवादी फार्मर को भी औसत मुनाफे से अधिक मुनाफा हो, वरना वह पूंजीवादी भूस्वामी से ज़मीन किराए पर लेकर खेती क्यों करेगा? अगर उसे औसत मुनाफा ही मिल रहा है, और उसे उसमें से ज़मीन का किराया/लगान पूंजीवादी भूस्वामी को निकालकर देना है, तो वह अपनी पूंजी अर्थव्यवस्था में कहीं और लगाएगा, जहां उसे औसत मुनाफे की दर हासिल हो सके। इसलिए खेती में उत्पाद की कीमत सबसे ख़राब ज़मीन और सबसे ख़राब उत्पादन की स्थितियों से तय होती है और ख़राब से ख़राब ज़मीन को कुछ अतिरिक्त मुनाफ़ा तभी मिल सकता है, जबकि खेती में पैदा हो रहा समूचा मूल्य (यानी, वस्तुकृत श्रम या उत्पाद का रूप ले चुका श्रम) खेती के क्षेत्र में ही रहे, जो कि आम तौर पर अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में मिल रहे औसत मुनाफे से ऊंचा ही होता है क्योंकि वहां पर खेती के मुकाबले मशीनें ज़्यादा होती हैं और मज़दूर प्रति इकाई मशीन कम होते हैं। नतीजतन, खेती में श्रम भी ज्यादा सघन होता है और मूल्य भी ज़्यादा पैदा होता है। लुब्बेलुबाब यह कि पूंजीवादी ज़मीन्दार भी अगर इतना लगान मांगता है कि पूंजीवादी फार्मर के पास औसत मुनाफे जितना भी न बचे तो पूंजीवादी फार्मर अपनी पूंजी को किसी और क्षेत्र में लगाना पसन्द करेगा; और अगर पूंजीवादी फार्मर खेती में पूरी अर्थव्यवस्था के औसत मुनाफे के ऊपर मिल रहे 'अतिरिक्त मुनाफे' को लगान पूंजीवादी भूस्वामी के हवाले नहीं करता, तो पूंजीवादी भूस्वामी अपनी ज़मीन किराए पर पूंजीवादी फार्मर को देगा ही नहीं।
खाद्यान्न व अन्य खेती उत्पादों की बढ़ती मांग और ज़मीन की सीमित मात्रा यह सुनिश्चित करती है कि पूंजीवादी फार्मर ज़मीन किराए पर ले, औसत मुनाफा अपने पास रखे और 'अतिरिक्त मुनाफा' लगान के रूप में पूंजीवादी ज़मीन्दार के हवाले करे। यानी कि पूंजीवादी भूस्वामी मनमाना लगान नहीं ले सकता है और यह लगान बाज़ार के लिए उत्पादन, औसत मुनाफे की दर, खेती में उत्पादकता आदि कारकों से तय होती है। जहां पर पूंजीवादी फार्मर ही स्वयं ज़मीन का मालिक होता है, वहां यह 'अतिरिक्त मुनाफ़ा' लगान के रूप में किसी पूंजीवादी ज़मीन्दार के पास नहीं जाता है, बल्कि उसकी जेब में जाता है। बहरहाल, यह होता है पूंजीवादी लगान, जो कि सामन्ती लगान से भिन्न होता है। जब एक बार पूंजीवादी लगान खेती में पैदा हो जाता है, तो खेती में उत्पादन सम्बन्धों का चरित्र मूलत: और मुख्यत: पूंजीवादी बन जाता है और हमारे देश में कई दशकों पहले हो चुका है।
जब पूंजीवाद का विकास हो जाता है, तो खेती में भी बड़ी पूंजी छोटी पूंजी को निगलती है, खेतिहर मज़दूरों का शोषण करती है, उनके द्वारा पैदा बेशी मूल्य को मुनाफ़े के लिए हड़पती है।

पूंजीवादी फार्मर (धनी किसान) कौन होता है? पूंजीवादी फार्मर वह होता है जो कि पूंजी का निवेश कर खेती के उपकरणों, मशीनों, कच्चे माल आदि को खरीदता है, मज़दूरों की श्रमशक्ति को खरीदता है और बाज़ार के लिए उत्पादन करवाता है। मज़दूरों द्वारा पैदा बेशी मूल्य को वह मुनाफे के रूप में अपनी जेब के हवाले करता है, उसके एक हिस्से का उपभोग करता है और मुनाफ़े और बाज़ार की स्थितियां अच्छी होने पर उसे खेती में ही वापस लगाता है, या अन्य किसी क्षेत्र में निवेश कर देता है। अगर उसने ज़मीन किसी पूंजीवादी ज़मीन्दार से किराए पर ली है, तो वह खेती में औसत मुनाफे के ऊपर मिलने वाले बेशी मुनाफे को पूंजीवादी ज़मीन्दार को लगान के रूप में देता है और अगर ज़मीन उसकी अपनी होती है, तो यह बेशी मुनाफा भी उसकी जेब में जाता है। जिन्हें हम भारत में धनी किसान वर्ग और उच्च मध्यम किसान वर्ग कहते हैं, वह यही पूंजीवादी कुलक-फार्मर है, जो कि पूंजी निवेश करता है, मशीनें व कच्चे माल ख़रीदता है, मज़दूरों को रखता है, और मुनाफा कमाता है। यह आम तौर पर वह किसान हैं, जिनके पास 4 हेक्टेयर या उससे अधिक ज़मीन है, हालांकि देश के अलग-अलग राज्यों की स्थितियों में कुछ अन्तर भी है, लेकिन देश के पैमाने में फिलहाल इस औसत से काम चलाया जा सकता है।


इसके बाद, ऐसे किसानों का वर्ग आता है जिनके पास इतनी पूंजी (और अक्सर इतनी ज़मीन भी) नहीं होती कि वे उजरती मज़दूरों को काम पर रखें, बड़े पैमाने पर यंत्र, उपकरण, उन्नत बीज, खाद, व अन्य इनपुट्स ख़रीदें। यह बिरले ही दो-चार मज़दूर काम पर रखते हैं और आम तौर पर अपने और अपने पारिवारिक श्रम से खेती करते हैं। इनके पास, अपनी ज़रूरतों के बाद बहुत ज़्यादा उपज नहीं बचती और वह कुछ ही उपज सरकारी मण्डियों में बेच पाते हैं। अक्सर वे स्थानीय धनी किसान, आढ़तियों, बिचौलियों को ही ये उपज आनन-फानन पर कम दामों में बेच देते हैं क्योंकि उनके पास इस उपज को भण्डारित करने की सुविधा भी नहीं होती और चूंकि ये किसान दस में से नौ मामलों में धनी किसानों, कुलकों, सूदखोरों, आढ़तियों आदि (जो कि अक्सर एक ही व्यक्ति होता है!) के कर्ज़ तले दबा होता है और दर्जनों प्रकार के आर्थिक बन्धनों के ज़रिये उन पर निर्भर होता है। इसलिए कम दाम पर अपनी अतिरिक्त उपज इन धनी किसानों-कुलकों के हवाले करना इनकी मजबूरी होती है। किसानों के इस हिस्से को हम निम्न-मंझोला किसान वर्ग कहते हैं। ये किसान अक्सर धनी किसानों-कुलकों के लिए ठेका खेती भी करते हैं। इस व्यवस्था में एमएसपी से नीचे तय किये गये दाम पर ये धनी किसानों-कुलकों के लिए धान या गेहूं उगाते हैं और उन्हें बेचते हैं। कई बार ये ज़मीन भी इन्हीं धनी किसानों-कुलकों से किराए पर लेते हैं, दस में से नौ मामलों में खेती के लिए चालू पूंजी (जिसकी ज़रूरत निरंतर किसान को खेती के लिए पड़ती है) भी सूद पर इन निम्न मंझोले किसानों को कुलकों-धनी किसानों से ही मिलती है और फिर अन्त में अपनी उपज को एमएसपी (और बाज़ार दर) से कम दाम पर ये इन्हीं धनी किसानों-कुलकों को बेचते हैं।
यानी कि निम्न-मंझोले किसान को ये धनी किसान-कुलक पूंजीवादी ज़मीन्दार के रूप में लगान लेकर, सूदखोर के रूप में ब्याज़ लेकर, पूंजीवादी फार्मर के रूप में मुनाफ़ा लेकर और साथ ही आढ़ती-बिचौलिये के रूप में कमीशन (व्यापारिक मुनाफा) लेकर लूटते हैं। इन निम्न-मंझोले मालिक किसानों व काश्तकारों, दोनों के पास इतना भी नहीं बचता कि वे अपने घर का नियमित ख़र्च चला सकें। नतीजतन, इन्हीं के घरों से लोग प्रवासी मज़दूर बनकर दूसरे गांवों में या शहरों में जाते हैं, ताकि घर की अर्थव्यवस्था चल सके। इन निम्न मंझोले किसानों को पंजाब और हरियाणा में सरकारी मण्डियों तक काफ़ी हद तक पहुंच हासिल है, क्योंकि वहां सरकारी मण्डियों का नेटवर्क बाकी देश से कहीं बेहतर है। लेकिन चूंकि उनके पास बेचने योग्य उपज की मात्रा बहुत बड़ी नहीं होती है और चूंकि साल भर में वे जितना अनाज एमएसपी पर बेचते हैं, उससे ज़्यादा ख़रीदते हैं, इसलिए उन्हें एमएसपी का कोई फ़ायदा नहीं बल्कि नुकसान होता है। मध्यप्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना व केरल में भी कुछ निम्न मंझोले किसानों की एमएसपी तक पहुंच है, लेकिन पंजाब व हरियाणा के मुकाबले कम। और बाकी राज्यों में तो एमएसपी और सरकारी मण्डियों तक उनकी पहुंच नगण्य है। लेकिन जिन मामलों में उनकी एमएसपी व सरकारी मण्डियों तक पहुंच है भी, वहां भी एमएसपी का उन्हें नुकसान ज़्यादा होता है, क्योंकि वे मुख्य रूप से खेती उत्पाद के ख़रीदार हैं, विक्रेता नहीं।
इसके बाद उन किसानों का वर्ग आता है जिन्हें हम सीमान्त व छोटा किसान, या सीधे ग़रीब किसान व अर्द्धसर्वहारा कह सकते हैं। यह वह किसान है जो कभी उजरती श्रम का शोषण नहीं करता है, बल्कि अपने और अपने पारिवारिक श्रम से ही खेती करता है और उससे उसकी बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी नहीं होती हैं। ऐसे किसान देश की कुल किसान आबादी का 92 प्रतिशत हैं। उनके पास 2 हेक्टेयर से भी कम ज़मीन है और अपनी खेती ही नहीं बल्कि रोज़ाना की घरेलू आवश्यकताओं के लिए भी ये कर्ज़ लेने को मजबूर होते हैं। ये चाहें तो भी कभी एमएसपी का फ़ायदा नहीं उठा सकते हैं। इनकी पारिवारिक आय का केवल 15 प्रतिशत खेती से आता है। अब आप स्वयं ही समझ लें कि ये कितना उत्पाद कहीं भी बेच पाते हैं, सरकारी मण्डी तो दूर की बात है। इनकी गृहस्थी मूलत: मज़दूरी से चलती है क्योंकि इनकी पारिवारिक आय का 85 फीसदी मज़दूरी से ही आता है। ये ग़रीब और सीमान्त किसान पूंजीवादी फार्मरों व ज़मीन्दारों द्वारा ही शोषित होते हैं और गांव में रहने वाला कोई भी व्यक्ति इस सच्चाई को जानता है, चाहे कोई इससे कितना भी मुंह क्यों न मोड़ना चाहे।
सबसे निचले संस्तर पर है खेतिहर मज़दूर वर्ग। गांवों में अब खेतिहर मज़दूरों की संख्या कुल किसान आबादी (जिसमें सीमान्त, छोटे व निम्न मंझोले किसान भी शामिल हैं) से ज़्यादा है। 2011 में ही भारत की खेती में लगी आबादी में से 14.5 करोड़ खेतिहर मज़दूर थे, जबकि किसानों की संख्या 11.8 करोड़ रह गयी थी। पिछले 10 वर्षों में यदि विकिसानीकरण (किसानों के मज़ूदर बनने की प्रक्रिया) की दर वही रही हो, जो कि 2000 से 2010 के बीच रही थी, तो आप मानकर चल सकते हैं कि खेतिहर मज़दूरों की संख्या 15 करोड़ से ऊपर जा चुकी होगी, जबकि किसानों की संख्या 11 करोड़ से नीचे। इस खेतिहर मज़दूर आबादी का करीब आधा हिस्सा दलित आबादी से आता है। इनके शोषण को अतिशोषण में तब्दील करने में इनकी जातिगत स्थिति का भी एक योगदान है। पंजाब और हरियाणा वे प्रदेश हैं, जहां दलित आबादी कुल आबादी का 25 प्रतिशत से भी ज़्यादा है। यदि प्रवासी मज़दूरों को छोड़ दें, तो पंजाब और हरियाणा के गांवों में खेतिहर मज़दूरी करने का काम यही आबादी करती है।
पंजाब और हरियाणा में जब लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मज़दूरों का आना रुक गया था, तो मज़दूरी बढ़ने लगी थी क्योंकि श्रम की मांग बढ़ रही थी। ऐसे में, पंजाब और हरियाणा के धनी किसानों-कुलकों ने अपनी पंचायतें और खापें बुलाकर खेतिहर मज़दूरी पर एक सीलिंग फिक्स की थी। किसी भी मज़दूर को उससे ज़्यादा मज़दूरी नहीं दी जा सकती थी। यदि कोई मांगता तो उसका सामाजिक बहिष्कार होता न ही इन मज़दूरों को अपने गांव से बाहर जाकर मज़दूरी करने की इजाज़त थी। और जहां तक प्रवासी मज़दूरों की बात है, जो कि पंजाब और हरियाणा में बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड आदि से जाते हैं, उनके शोषण और उत्पीड़न में भी धनी किसानों-कुलकों का वर्ग कोई कसर नहीं छोड़कर रखता है।
ये हैं खेती में लगे वर्गों का एक विवरण: पूंजीवादी भूस्वामी, पूंजीवादी फार्मर (मालिक व किराएदार), निम्न मंझोला किसान, सीमान्त व छोटे किसान, और खेतिहर मज़दूर। इसके बाद आढ़तियों व व्यापारियों का वर्ग भी है, जिनकी भूमिका कम-से-कम पंजाब में अधिकांश मसलों में स्वयं पूंजीवादी भूस्वामी व पूंजीवादी फार्मर ही निभाते हैं।
क्या इन वर्गों के एक हित हो सकते हैं ? जब तक सामन्तवाद था और सामन्ती भूस्वामी वर्ग था, तब तक धनी किसान, उच्च मध्यम किसान, निम्न मध्यम किसान, ग़रीब किसान व खेतिहर मज़दूर का एक साझा दुश्मन था। आज जहां तक निम्न मंझोले किसानों, ग़रीब किसानों व खेतिहर मज़दूरों के वर्ग का प्रश्न है, तो उसका प्रमुख शोषक और उत्पीड़क कौन है ? वे हैं गांव के पूंजीवादी भूस्वामी, पूंजीवादी फार्मर, सूदखोर और आढ़तियों-बिचौलियों का पूरा वर्ग। उनकी मांगें और हित बिल्कुल अलग हैं और गांव के ग़रीबों की मांगें और हित बिल्कुल भिन्न हैं।
इसलिए जब आपसे कोई ''किसान के हित'' की बात करे, तो सबसे पहले पूछिये: कौन-सा किसान? उजरती श्रम का शोषण करके, लगान वसूलकर, सूद लूट कर ग़रीब और निम्न मंझोले किसानों को निचोड़ने वाला धनी किसान व कुलक? या फिर 92 प्रतिशत किसान जिनकी आय का 50 प्रतिशत से भी ज़्यादा अब मज़दूरी से आता है, न कि खेती से? इन दोनों की मांगें एक कैसे हो सकती हैं? इसलिए हम मज़दूरों और ग़रीब किसानों को सबसे पहले यह समझ लेना चाहिए कि किसान कोई एक वर्ग नहीं हैं। ये स्वयं कई वर्गों में बंटा हुआ समुदाय है जिनके अलग-अलग हित और अलग-अलग मांगें हैं। एक शोषक है, तो दूसरा शोषित है।
देश के कुल किसानों में से केवल 6 प्रतिशत को लाभकारी मूल्य का लाभ मिलता है। बेशक यह प्रतिशत अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है। पंजाब और हरियाणा में और एक हद तक (अगर गेहूं की बात की जाय) तो मध्यप्रदेश में यह प्रतिशत ज़्यादा है। लेकिन पंजाब में भी एक-तिहाई किसानों के पास 2 हेक्टेयर तक ही ज़मीनें हैं। वहां भी इस ग़रीब व सीमान्त किसानों के वर्ग को लाभकारी मूल्य का फ़ायदा इसलिए नहीं मिलता क्योंकि वे प्रमुख रूप से अनाज के ख़रीदार हैं और विक्रेता नहीं। पंजाब के खेतिहर मज़दूरों को इसका कोई लाभ नहीं मिलता बल्कि हानि होती है; प्रवासी मज़दूरों को भी इसका नुकसान ही होता है। इसका लाभ मुख्य तौर पर सबसे बड़े व उच्च मध्यम किसानों को होता है, जो पंजाब में कुल किसान आबादी का करीब एक-तिहाई हैं। पंजाब में कुलक, धनी किसान व उच्च मध्यम किसानों का घनत्व कुल किसान आबादी में देश के मुकाबले ज़्यादा है। इसकी वजह यह है कि 'हरित क्रान्ति' के दौरान पूंजीवादी धनी किसानों के एक पूरे वर्ग को राजकीय संरक्षण और समर्थन के साथ खड़ा करने का काम यहीं किया गया था। दूसरे नम्बर पर इस मामले में हरियाणा आता है। एमएसपी पर होने वाली कुल ख़रीद का करीब 70 फीसदी इन्हीं दो राज्यों से आता है। यानी लाभकारी मूल्य के रूप में कृत्रिम रूप से ऊंची मुनाफा दर यहीं के धनी किसानों-कुलकों के वर्ग को दी जा रही है और सरकारी ख़रीद भी सबसे ज्यादा इन्हीं दो राज्यों से हो रही है। अब आप समझ गये होंगे कि मौजूदा धनी किसान आन्दोलन का केन्द्र पंजाब और दूसरे नम्बर पर हरियाणा क्यों बन रहा है। बाकी राज्यों में कोई व्यापक किसान जनसमुदायों का आन्दोलन नहीं है और अधिकांश कुछ विशेष संगठन और यूनियनें हैं जो कि इस पर प्रदर्शन आदि कर रही हैं। इस बात से चाहे कोई कितना भी इंकार करना चाहे, यह आन्दोलन मूलत: और मुख्यत: पंजाब और एक हद तक हरियाणा के धनी किसानों-कुलकों का ही आन्दोलन है।
लाभकारी मूल्य या एमएसपी क्या होता है? सरकार का एक आयोग है जिसे कृषि लागत व कीमत आयोग कहा जाता है। यह आयोग नियमित अन्तराल पर कृषि की व्यापक लागत तय करता है जिसमें खेती में लगने वाले यंत्र, उपकरण, खाद, बीज, लेबर के खर्च को जोड़ा जाता है, फिर किसान के परिवार के सदस्यों के श्रम (धनी किसान के लिए यह बोनस है क्योंकि उसके परिवार के लोग खेत पर काम नहीं करते हैं) के दाम को जोड़ा जाता है, ब्याज़ को जोड़ा जाता है और लगान को भी जोड़ा जाता है (हालांकि भारत में अधिकांश मामलों में ज़मीन के मालिक स्वयं पूंजीवादी धनी किसान ही हैं)। इसे सम्पूर्ण या व्यापक लागत कहा जाता है और सरकार इसके ऊपर 30 से 50 फीसदी ऊंचे सरकारी दाम, यानी एमएसपी तय करती रही है। यानी, लागत के ऊपर 30 से 50 प्रतिशत तक का मुनाफ़ा।
इस ऊंचे सरकारी दाम के कारण कम-से-कम धान, गेहूं, कपास, मक्का और कुछ दलहनों की बाज़ार कीमतें भी ऊंची हो जाती हैं। ये वे चीज़ें हैं जिनसे व्यापक आबादी का नियमित आहार बनता है। नतीजतन, भोजन पर व्यापक आबादी का ख़र्च बढ़ता है, उनके पोषण का स्तर गिरता है, अन्य आवश्यक वस्तुओं पर ख़र्च कम होता है और कुल मिलाकर उनका जीवन-स्तर नीचे जाता है।
इसके साथ ही, सार्वजनिक वितरण प्रणाली का भी लाभ नहीं बल्कि नुकसान होता है। भारत में भारी खाद्य रिज़र्व के बावजूद एक अच्छी-ख़ासी आबादी के भूखा रहने का यह भी कारण है कि एमएसपी पर सरकारी ख़रीद के बाद सरकार इसे पूंजीपतियों को बेचना पसन्द करती है, न कि उसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिये ज़रूरतमन्दों तक पहुंचाना। इसके अलावा, बाज़ार कीमतें एमएसपी के कारण ही बेहद ऊंची फ्लोर लेवल के साथ फिक्स हो जाती हैं और उन पर भी जमाखोरी का असर न पड़ता हो, ऐसा भी नहीं है।
नतीजतन, लाभकारी मूल्य सीधे-सीधे आम शहरी व ग्रामीण मज़दूरों, शहरी निम्न मध्यवर्ग और साथ ही सीमान्त, छोटे व निम्न मंझोले किसानों के हितों के विरुद्ध जाता है। यह तथ्य है। लेकिन तमाम कम्युनिस्ट इस सच्चाई से मुंह मोड़े खड़े हैं, क्योंकि उन्हें धनी किसानों-कुलकों के आन्दोलन में जगह पानी है और उसके नेतृत्व की गोद में बैठना है। लाभकारी मूल्य की मांग मूलत: और मुख्यत: धनी किसानों-कुलकों और उच्च मध्यम किसानों की ही मांग है।

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