तमाम तिलचट्टे, छछूंदर, छिपकली और चूहे बदहवास क्यों भाग रहे हैं इधर-उधर?

 तमाम तिलचट्टे, छछूंदर, छिपकली और चूहे बदहवास क्यों भाग रहे हैं इधर-उधर?



By Kavita Krishnapallavi

कोविशील्ड वैक्सीन बनाने वाली कंपनी का मालिक अदार पूनावाला लंदन भाग गया । वह कह रहा है कि भारत में उसकी जान को ख़तरा था । अब वह यूरोप में ही वैक्सीन बनाने की बात कर रहा है । पूनावाला को सरकार ने वैक्सीन बनाने के लिए सारे सरकारी नियमों में ढील देकर 3000 करोड़ रुपए का अनुदान दिया था और कहा था कि यह वैक्सीन जनता को मुफ़्त दी जाएगी । अब पूनावाला इसे सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रतिष्ठानों को 400 रुपए और निजी अस्पतालों को 600 रुपए में बेच रहा था । अब वह भाग गया और सरकारी खजाने के तीस अरब रुपए पचा गया । दरअसल यह वैक्सीन घोटाला और कोरोना-प्रबंधन घोटाला (पी एम केयर फंड, वेंटिलेटर और जीवन रक्षक दवाओं और आक्सीजन आदि के इंतजाम और कालाबाजारी सहित) भी रफाएल जैसा ही एक एक भयंकर घोटाला है, एक नरसंहारी घोटाला है । इंतज़ार कीजिए, कहीं एक दिन सरकार से 1500 करोड़ का अनुदान देने वाला, कोवैक्सीन बनाने वाली कंपनी भारत बायोटेक का मालिक भी रफूचक्कर न हो जाए ! 

अबतक मोदी शासनकाल में सरकारी बैंकों के खरबों-खरब रुपए लेकर उनका भट्ठा बैठाकर विदेश भाग जाने वाले पूँजीपतियों की संख्या पचास पार कर चुकी है । वह आदमी मासूम नहीं बागड़-बकलोल ही होगा जो यह सोचता है कि यह सब बिना मोदी-शाह एण्ड कं. के मिलीभगत के हो रहा है !

वैसे घोटाले करके स्थायी तौर पर विदेश जा बसने वाले ठग थैलीशाहों के अतिरिक्त भी इनदिनों भारत के शीर्षस्थ धनपशु बड़े पैमाने पर सपरिवार विदेश चले गये हैं, या अपने परिवारों को स्थायी या अस्थायी तौर पर वहाँ शिफ्ट कर दिया है । सुनने में आया है कि मुकेश अंबानी भी फ़िलहाल सपरिवार ब्रिटेन चले गये हैं । जिस दिन ब्रिटेन भारत से अपनी उड़ानों पर रोक लगाने वाला था (फिर वह तारीख कुछ आगे टाल दी) उस दिन के शुरू होने के ऐन पहले लंदन के हवाई अड्डे पर आठ बड़े प्राइवेट जेट भारत के शीर्ष अरबपतियों - खरबपतियों के परिवारों को लेकर उतरे ! 

भारत से उड़ानें बंद होने से पहले के दिनों तक अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, ब्रिटेन, इटली, जर्मनी और दूसरे यूरोपीय देशों का रुख करने वाले 'सुपर-रिच' कुनबों का ताँता लगा रहा । जिन अमीरों ने आबू धाबी, दुबई से लेकर दूरस्थ टापुओं तक पर आरामगाह बना रखे हैं, उन्होंने अपने परिवारों को वहाँ भेज दिया है।

आखिर ये सभी छछूंदर, तिलचट्टे, चूहे और कनखजूरे इतने बदहवास होकर इधर-उधर भाग क्यों रहे हैं ? ये सभी परजीवी जोंकें इतना किलबिल-किलबिल क्यों कर रही हैं ? माना कि महामारी के इसक़दर फैलाव से तमाम सर्वोत्तम स्वास्थ्य सुविधाओं और अपने अतिसुरक्षित महलों और ऐशगाहों में दुबके रहने के बावजूद, इन कबूतरदिल शोषकों-लुटेरों को भी अपने और अपने परिजनों के प्राणों का भय सताने लगा है । लेकिन मुख्य बात यह नहीं है ! पूँजीपति सबसे अधिक जनता के सड़कों पर उतरने की आशंका से भयाक्रांत रहते हैं । आज जिस तरह देशभर में लोग महामारी से भी अधिक स्वास्थ्य सुविधाओं के भीषण अभाव और सरकारी आपराधिक लापरवाही के चलते सड़कों पर मर रहे हैं, उस स्थिति में जनाक्रोश का ज्वालामुखी कभी अचानक भी भड़क सकता है और सड़कों पर बहता पिघला हुआ लावा ऐश्वर्य-द्वीपों पर जगमगाते धनकुबेरों के महलों को भी अपनी चपेट में ले सकता है । 

यह भय एक सहज वर्ग-बोध के नाते सभी शोषकों-लुटेरों को हमेशा सताता रहता है जो शस्त्रसज्जित राज्यसत्ता और दिमागों को अनुकूलित करने वाले प्रचार-तंत्र और सांस्कृतिक तंत्र की नशे की ख़ुराक़ की बदौलत जनसमुदाय को उजरती ग़ुलाम बनाते रखते हैं और उनकी नस-नस से ख़ून चूसते रहते हैं ! आज भारत के सरमायेदारों को किसी हद तक इस डर और आशंका ने भी ज़रूर घेर रखा है । बदहवास तो मोदी और शाह भी हैं, लेकिन वे बेक़रारी से इंतज़ार कर रहे हैं कि किसी तरह से कोरोना की प्रचंडता थोड़ी उतार पर आये तो फिर से सी ए ए -एन आर सी, काशी-मथुरा और राम मंदिर निर्माण को हवा देकर एक बार फिर वे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करके जनता को बाँट दें और साम्प्रदायिक उन्माद की लहर में सबकुछ को डुबो दें !

लेकिन पूँजीपति फिर भी संकट की स्थिति में जनज्वार के भय से मुक्त नहीं हो पाते और एहतियातन सुरक्षा के ज़रूरी इंतज़ामात के लिए भाग-दौड़ करने लगते हैं । लुटेरे शासक, उनके सिद्धांतकार-सलाहकार और नीति-निर्माता भी इस बात को समझते हैं कि क्रांति अभी संभव नहीं है क्योंकि कोई आमूलगामी सामाजिक क्रान्ति एक एकीकृत, परिपक्व क्रान्तिकारी पार्टी के नेतृत्व के बिना नहीं हो सकती । लेकिन इतिहास ने शासक वर्गों को भी यह सिखाया है कि कई बार स्वयंस्फूर्त जन-उभारों और जन-विद्रोहों के दौरों में  ऐसी बोल्शेविक टाइप क्रान्तिकारी केन्द्र के निर्माण की प्रक्रिया बहुत तेज़ हो जाती है और कई दशकों का काम चंद वर्षों में होने की ज़मीन तैयार हो जाती है । लेकिन इस बात को छोड़ भी दें तो यह एक आम सच्चाई है कि पूँजीपति देशव्यापी जन-उभारों और जन-विद्रोहों से भी अत्यधिक भयाक्रांत रहते हैं क्योंकि, क्रान्ति भले न हो, लेकिन "जनता के आतंक" का कहर तो ऐसे दौरों में अमीरों के एक बड़े हिस्से को भुगतना ही पड़ जाता है । उदाहरण पचासों हैं, सिर्फ़ एक की याद दिला दूँ । हाइती में तानाशाह दुबालियर के महाभ्रष्ट और महादमनकारी शासन के अन्तिम दिनों में जब जनता सेना-पुलिस की गोलियों के भय से मुक्त होकर सड़कों पर उतर पड़ी तो सड़कों पर जहाँ कहीं भी महँगी अमेरिकी कार में कोई अमीरजादा दीख जाता था, उसे खींचकर उसके गले में लोग जलता हुआ टायर डाल देते थे और गाड़ी को भी वहीं फूँक देते थे । हज़ारों की तादाद में इकट्ठे होकर लोग अमीरों के विला, बंगलों और फार्म हाउसों पर धावा बोल देते थे । 

ऐतिहासिक त्रासद विडंबना अगर यह हो कि पूँजीवादी संकट गंभीर हो और क्रान्ति की मनोगत शक्तियाँ  क्रान्तिकारी समाधान दे पाने की स्थिति में न हों तो पूँजीवादी संकट का धुर-दक्षिणपंथी समाधान कई बार फ़ासिज़्म के रूप में सामने आता है । लेकिन तबसे लेकर क्रान्ति तक, इतिहास रुका नहीं रहता है, लोग बस पीठ झुकाए गुलामों की तरह जीते नहीं रहते हैं । कई बार फासिस्ट शासकों, तानाशाहों और निरंकुश बुर्जुआ सत्ताओं के ख़िलाफ़ स्वयंस्फूर्त उग्र जन-उभार और जन-विद्रोह भी सड़कों पर फूट पड़ते हैं । उनकी आशंका मात्र से सभी परजीवी, भ्रष्ट अमीरों की पैंटें सिर्फ़ सोने में ही नहीं, दिन में जागते हुए भी गीली होती रहती हैं।



अगर आप चाहते हैं कि कोरपोरेट मीडिया की जगह जनता का अपना वैकल्पिक मीडिया खड़ा हो तो इंक़लाब हरियाणा को वैकल्पिक मीडिया के तौर पर खड़ा करने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा सहयोग करें।

Comments